जैविक सेतु और महात्मा
महात्मा गांधी जी के विचारों से कोई अछूता नहीं रह सकता। औद्योगीकरण, शहरीकरण, भौतिकतावाद की पिछले कुछ वर्षों में चली आंधी में वे थोड़ा धूमिल अवश्य हुए, पर जैसे जैसे इन के विनाशकारी परिणामों का आभास लोगों को होने लगा, गांधी जी की कालजयी अवधारणाएं पुनः प्रासंगिक होने लगी हैं। रेखा रूपी संसाधन-उत्पादन-उपभोग-अपशिष्ट अर्थव्यवस्था ने तीन सौ वर्षों में ही पर्यावरण संतुलन को विनाश के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया जो करोड़ों वर्षों से चक्र रूपी जन्म- पालन-मृत्यु-जन्म व्यवस्था से शाश्वत बनी हुई थी। साथ ही संस्कार, विचार और सामाजिक आचार का भी ऐसा ह्रास हुआ जो भारत के मूलभूत चरित्र को बदलने लगा। कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे में गांधी जी द्वारा भारतीय संस्कृति एवं संस्कार के गहन अध्ययन एवं समझ पर आधारित दर्शन को पुनः व्यवहार में लाना अपरिहार्य हो गया है।
पूरे देश में अलग अलग जगहों पर, अलग अलग तरीकों से चिंतक एवं जागरूक उद्यमी गांधी जी के सिद्धांतों को समझ कर उन्हें व्यवहारिक जीवन में उतार रहे हैं ताकि स्थिति को सम्भाला जा सके और भारत को उसके पारंपरिक विश्व गुरु, विश्व प्रणेता की भूमिका में स्थापित किया जा सके।
इंदौर के भिचौली मर्दाना स्थित जैविक सेतु की स्थापना पर्यावरण हितैषियों के समर्थन से 6 दिसंबर 2014 सुश्री सुमित्रा (ताई) महाजन के तत्त्वाधान में हुई। अपने नाम के अनुरूप ही जैविक सेतु की शुरुआत गांधी जी के स्थानीय विपणन व्यवस्था के विचार से प्रेरित, स्थानीय पौष्टिक भोजन उत्पादक तथा उपभोक्ता के मध्य एक सेतु के रूप में हुई। इंदौर जिले में कई किसान अपने अपने स्तर पर जैविक कृषि की अलख जगाये हुए थे। जैविक सेतु के अथक प्रयासों से इंदौर के जागरूक लोगों से वे जुड़ते गए और स्वस्थ एवं पौष्टिक भोजन के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की कड़ी का यह उदाहरण बनता गया। अन्न, ,मौसमी फल तथा सब्ज़ियां, खाद्य तेल,मसालों एवं प्रसंस्कृत भोजन सामग्री की संख्या क्रमशः बढ़ती गयी और साथ ही उन्हें उत्साहपूर्वक खरीदने वालों की संख्या भी। आज नियमित रूप से प्रत्येक रविवार हाट की तर्ज़ पर यहां बाज़ार लगता है इनके क्रय विक्रय के लिए। बढ़ती मांग देख कर इसी परिसर में एक ऐसा भंडार खोला गया जहां ये सब सप्ताह भर उपलब्ध रहते हैं।
एक स्वस्थ शाश्वत व्यवस्था नैसर्गिक संस्कृति के आंचल में ही पनप सकती है। रविवार के हाट न जाने कितने देशी, विदेशी, नैसर्गिक एवं बाह्य कार्यक्रमों से सुशोभित हो चुके हैं जिन्होंने लोगों को अपने पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ने की दिशा में भी सेतु का काम किया। कबीर की मिट्टी से उपजी सोच, इंदौर की मिली जुली संस्कृति, विविधता से सम्पन्न भोजन, मालवीय संगीत, वैचारिक गोष्ठियां जैविक सेतु को समृद्ध बनाते रहे। रविवारीय हाटों में अपनी अपनी विधा में भारतीय संस्कृति को सहेजे रखने वालों के बीच की वार्ताएं और विचारों का आदान प्रदान न केवल एक दूसरे को संबल देते हैं बल्कि उन्नत भविष्य पर विश्वास को भी बल देते हैं। शांत, सुरम्य वातावरण में, पौष्टिक अल्पाहार का स्वाद लेते हुए लोग, उन्मुक्त वातावरण में निडर खेलते कूदते बच्चों की आवाज़, हरीतिमा, गिलहरियों की उधम, मोरों की शालीनता, चिड़ियों की चहचाहट, तितलियों तथा भंवरों के रंग और संगीत एक अद्भुत ही छटा बिखेरते हैं। शहर की आपाधापी, धूल, धुआं, भीड़, विकलता के बीच मनुष्य एवं प्रकृति के बीच एक सेतु बनाते हैं।
यही तो थी गांधी जी की मूल परिकल्पना- लोग लोगों से जुड़ें, स्वयं पर और अन्यों पर विश्वास करें, ,अपनी संस्कृति से जुड़े रहें, उत्पादक और उपभोक्ता आपस में जुड़ें, व्यक्ति समाज और राष्ट्र से और राष्ट्र व्यक्ति से जुड़े और सब एक दूसरे के पूरक बन एक और एक ग्यारह बनाएं। जैविक सेतु इन सबका सत है, एक ऐसी दिशा दिखाता है जो समसामयिक परिवेश में गांधीजी के विचारों को व्यापकता देता है। इसी वजह से जैविक सेतु देश एवं विदेश के लोगों के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन गया है। भारत की आत्मा के द्योतक महात्मा, स्वर्णिम इतिहास और उज्ज्वल भविष्य के बीच का सेतु।
लेफ्टिनेंट कर्नल(सेवानिवृत्त) अनुराग शुक्ल
1962 में लखनऊ में जन्मे, और धनबाद के कोयलांचल में पले बढ़े इंदौर के महू में 2015 में आ कर बसे। भारतीय सेना में 21 वर्ष की सेवा के बाद महू के अपने छोटे से भूखंड पर आश्रय नाम का एकीकृत कृषि वानिकी का मॉडल फ़ार्म बनाया जिस पर परिवार समेत रहते हुए प्रकृति एवं पर्यावरण की सेवा कर रहे हैं