महू के छोटे से भूमिखंड के आश्रय फार्म बनने की कहानी प्रकृति की तरह ही है। सतत्, रोचक,जीवन से परिपूर्ण और आशाओं और संभावनाओं से भरी। वर्ष 2005 में जब आश्रय बसा तब वह भूमि लगभग दस वर्षों से ऊसर पड़ी थी।मैं स्वयं कृषि से एकदम अनभिज्ञ था। बस एक इच्छा थी की लगातार बिगड़ते हालात में मैं कम से कम अपने परिवार को शुद्ध तथा पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा सकूँ। ऐसे में शुरुआत से शुरू करना ही शायद सबसे अच्छी बात रही। ठीक वैसे जैसे एक अबोध बालक के हाथ में नया खिलौना नयी सोच लाता है। इसीलिए जैविक कृषि का नाम भी जाने बगैर और आस पास के समस्त परिवेश में होती रासायनिक कृषि के प्रभाव के बावजूद कुछ ‘ हट के’ करने की इच्छा बनी। एक मूल विचार बस ये था कि रसायनों का उपयोग नहीं करना है। फिर एक मित्र के ज़रिये श्री दाभोलकरजी की पुस्तक ‘प्लेंटी फॉर आल’ हाथ आई जिसने पूरा नजरिया ही बदल दिया।जो आस पास हो रहा था उसके बारे मन में सवाल जगाये और साथ ही कृषि के जीवन और जीवन के कृषि से सम्बन्ध को बहुत सरलता से आपस में जोड़ दिया। सब से अहम उनका एक विचार है जिस में समस्त उत्तर सारगर्भित हैं। खेती भूमि की नहीं अपितु सूर्य की होनी है।
अगर इस वाक्य के आयामों को समझा जाए तो समकालीन कृषि की सारी समस्याओं के हल दिखने लगेंगे फिर चाहे वो छोटे होते भूखंड हों, सिमटते वन तथा चारागाह हों, रसायनों का अंधाधुंध उपयोग हो या घटते जलस्तर और भूमि की उर्वरा शक्ति हो।यानि कृषक का अधिकार तथा कर्त्तव्य अपने भूमिखंड की झोली फैलाये सूर्य देवता के असीम वरदान को दिन प्रतिदिन समेटते जाना ।तात्पर्य ये कि लाखों करोड़ों वर्षों के सौर ऊर्जा के संग्रहण यानि जैवाष्म जनित ऊर्जा तथा रसायनों(जिनसे आधुनिक कृषि उपकरण चलते है और रासायनिक खाद बनते हैं) को सर्वप्रथम ना कहा जाए। वे एक तरह से पितरों की सम्पदा है जिसका उपयोग आगे की पीढ़ियों से छीन कर ही कर सकते हैं। मेरे अधिकार में मात्र मेरे जीवनकाल में प्रतिदिन बरसता सूर्य देवता का प्रसाद ही है।
स्वयं पर लगाए इस सीमांकन से अगली दिशा ये बनी की सूर्य के प्रकाश का पूर्णरूपेण निस्तारण करना नितांत आवश्यक है। यह मूलतः प्रकाश को जैव पदार्थ में बदलने वाली फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। आस पास के खेतों को देखा तो पाया कि अव्वल तो वे वर्ष के अधिकतम सात महीने ही इस जैव संवर्धन का लाभ लेते हैं और वह भी क्षमताओं के अंश भर ही। बाहर से लायी गयी ऊर्जा,बाहर से लायी मिट्टी, बाहरी पानी और रासायनिक खाद के बावजूद कांतिहीन और निःस्पंद सी धरती जहां जगह थी तो बस दीर्घकालीन दुष्प्रभावों से बेखबर मानवीय लोलुपता के लिए। एक सजी धजी पर निस्तेज प्रौढ़ा की तरह। उसके विपरीत वन(मानव के प्रारब्ध से भोजन के स्त्रोत) की नैसर्गिक ऊर्जा,स्पंदन,विविधता है जो बिना किसी बाहरी निवेश के भी निरंतर प्रदायिनी है। एक चिरयौवना, वात्सल्यमयी, सँपूर्णा माँ की तरह जिसके आवरण तो ऋतुओं के साथ बदलते हों, कभी हरे भरे तो कभी सूखे से दिखने वाले पर उदारता में कमी कभी न आती हो। और उसका कारण मात्र एक है कि देखने में वन चाहे अव्यवस्थित लगें पर सूर्य की एक एक किरण का वहाँ भरपूर उपयोग होता है। खैर मानव जिस मुकाम पर है वहाँ उसे वापस वनों को ओर तो नहीं भेज जा सकता पर वनों को संशोधित रूप में सही पर खेतों में निश्चित ही लाया जा सकता है। वस्तुतः ये प्रारूप उस धारणा से अपना पीछा छुड़ाता है जिस में ये माना जाता है कि खेती और वन परस्पर विरोधी हैं और उनका सह अस्तित्व नहीं हो सकता।असल में वन एक प्रकार से बहु मंज़िला खेती का अनुसरणीय मॉडल हैं। निरंतर छोटे होते भूखंडों की स्थिति में जैविक तथा पौष्टिक उत्पाद बढ़ाने का ये सबसे सस्ता, आसान और स्वपोषी एवं पर्यावरण के लिए अच्छा विकल्प दिखा मुझे।
खैर पहले तो मेरा कृषि में नया होना, परिवेश से भिन्न रसायनों का उपयोग न करना और ऊपर से खेत में उपज के साथ वृक्षों को विकसित करने के प्रयास ने मुझे सबकी नज़रों में एक ऐसा खब्ती बना दिया जिसे हर कोई सहानुभूति के साथ देखता था। जैसे कटने के लिए जा रहे बकरा हो कोई, क्योंकि सबको विश्वास था कि ये शुगल ज़्यादा दिन नहीं चल पायेगा। हाँ ये ज़रूर था कि सबने हर प्रकार का समर्थन भी दिया, वरना एक नितांत अनाड़ी जिसे धनिया और गाजर के पत्तों का अंतर पता न हो वह इतने दिनों तक अपनी शिक्षा भी ज़ारी नहीं रख सकता था।
वापस चलें आश्रय की यात्रा पर। पूरी उपलब्ध ज़मीन को पहले तो खोद खोद के तीन वर्षों में साफ़ किया क्योंकि ऊसर भूमि पर जंगली पेड़ और गहरे जड़ों वाली काँस्ला नाम की घास थी। इसके लिए सेक्टर बांटे और प्रत्येक वर्ष एक सेक्टर को कृषि उपयोगी बनाया। साथ ही पेड़ लगाते चले। आपस में 15 से 20 फ़ीट की दूरी पर इन्हें एक मिश्रित वन की तरह लगाया न कि बगीचे जैसा। सभी स्थानीय प्रजातियों के फलदार तथा इमारती लकड़ी के पेड़ लगाए। आम धारणा के विपरीत पेड़ों के द्वारा धूप रोकने से ज़्यादा सतह के साथ बढ़ती उनकी लेटरल जड़ों के साथ पोषण का संघर्ष नीचे लगाए पौधों और फसलों का विकास रोकता है। इसके लिए प्रत्येक वर्ष गर्मी के आगमन से पहले पेड़ों के थाले बनाते समय तमाम लेटरल जड़ काटता रहा जिस का असर ये हुआ कि तीन चार सालों में पेड़ों ने सतह के पास नए जड़ निकालना ही बंद कर दिया। अब मेरी फसलें पेड़ों के तनों तक लगती हैं। साथ ही जहां तक हाथ पहुंचा वहाँ तक वृक्षों की टहनियाँ काटता रहा ताकि वृक्षों के साथ साथ नीचे की फसलों को भी सूर्य के प्रकाश की भरपाई हो।
चौथे वर्ष तक पूरी ज़मीन की सफाई हो गयी पेड़ लग गए और फसलें लगने लगीं। अब तक भूमि की नैसर्गिक उर्वरा शक्ति भी। समाप्त हो चली थी और पेड़ इतने बड़े थे नहीं कि उनके पत्ते उर्वरक की भूमिका पूरी तरह निभ सकते । गोपालन का कोई अनुभव न होते हुए भी अब गाय पालने का निर्णय लिया। आहिस्ता आहिस्ता करते करते गोपालन की बारीकियों को समझा और आश्रय को गायों का भी वरदान मिला। न केवल शुद्धतम दूध बल्कि गोबर से गैस बनाना, खाद से खेत को संवारना और गो मूत्र का कीट नियंत्रण में उपयोग करने से कृषि एवं गोपालन के परस्पर निर्भरता की गूढ़ता समझ आई।
लगभग एक बीघे से भी कम भूमि पर खेती अच्छी खासी आमदनी का स्त्रोत बन गयी है । वृक्षों के फल उत्पाद समस्त वर्ष आते है, उनके कारण स्थानीय नमी तथा कम तापमान के कारण ऊके नीचे लगाए पौधे भी बेहतर परिणाम देते हैं। पानी के स्तर में भी निश्चित वृद्धि हुई है। आज आश्रय जैव विविधता से परिपूर्ण जीवंत भूमि, ऋतुओं के लय पर थिरकता ,स्वयं में परिपूर्ण तथा अन्यों के लिए पूरक भूखंड है। वन्य पशु तो नहीं है पर नाना प्रकार के पक्षी, कीट पतंगे,केंचुए मेढक तथा अन्य जीव जंतु अपने आप संतुलन बनाये रहते है एक प्रकार से आश्रय का ‘स्टाफ़’ बन कर। हर प्राणी का आश्रय जहां हिंसा नहीं सह अस्तित्व बसता है।